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Tuesday, June 26, 2012

रखेवाल के जातिवादी तंत्री के खिलाफ केस सेशन्स कमीट हुआ

26 जुन 2012. आज अहमदाबाद की मेट्रोपोलीटन मेजीस्ट्रेट की कोर्ट में रखेवाल का तंत्री तरुण शेठ हाजीर हुआ. अब उसके खिलाफ सेसन्स कोर्ट में केस कमीट हो गया है. तरुण शेठ ने उसके दैनिक रखेवाल में जातिवादी मानसिकता का घृणास्पद प्रदर्शन किया था, जिसमें लिखा था,    

"प्राचीन काल में माता-पिता बच्चों को अच्छी सौबत मिले इस लिये उन्हे साधु-संतो के प्रवचनों को सुनने के लिये भेजते थे। बच्चे पढने के लिये तपोवन में जाते थे। जो बच्चे तपोवन में पढने के लिये नहीं जा सकते थे, वे गांव की पाठशाला में पढते थे। वहां उन्हे शिक्षण के साथ साथ सदाचार का पाठ भी पढाया जाता था। आज के बच्चे स्कूल जाते है। वहा नीच वर्ण' के बच्चों के संपर्क में आते है और खराब रीतभात सीखते है। आज की स्कूलो में 'खानदान कुल' के बच्चों के साथ खराब संस्कारवाले बच्चे भी आते है। और उनका रंग खानदान बच्चों को लगता ही है। पहले की पाठशालाओ में शिक्षक के रूप में मात्र 'ब्राह्मण' की पसंदगी की जाती थी, अब तो 'पिछडे वर्ग' के लोग भी आरक्षण' का लाभ लेकर शिक्षक बन जाते है। ऐसे 'शिक्षक' बच्चों को अच्छे संस्कार नही दे सकते।" (रखेवाल दैनिक, गुजरात, ता. 19-12-2008).

यह पेरेग्राफ गुजरात के प्रमुख अखबारों में से एक गुजरात समाचार के कोलमिस्ट संजय वोरा (उर्फ सुपार्श्व महेता) के आर्टिकल का है. यह आर्टिकल गुजरात के अन्य जानेमाने अखबार रखेवाल में छपा था, जिसके तंत्री तरुण शेठ के खिलाफ हमने नागरिक हक्क संरक्षण अधिनियम 1955 की धारा 7/1/सी, अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 की धारा 3(1)(9), 3(1)(10) तथा इन्डीयन पीनल कोड की धारा-153 ए, धारा 500, 505(1)(ग) के तहत ता.17-9-2009 को एफआईआर दर्ज करवाई थी. अहमदाबाद की मेट्रोपोलिटन मेजिस्ट्रेट की कोर्ट में केस अभी चल रहा है और 'रखेवाल' का तंत्री कम से कम एक दिन के लिए साबरमती जेल में जा चूका है. एफआईआर क्वॉश करने की तंत्री की पीटीशन गुजरात हाइकोर्ट ने खारिज कर दी है. गुजरात के मीडीया जगत में यह पहली घटना है.



राजकोट के बाद थोराला में दलित-मुसलमानों के बीच दंगा


वैसे गुजरात की इन दो घटनाओं का एक दूसरे से प्रत्यक्ष संबंध नहीं हैं, फिर भी हम दोनों घटनाओं को एक साथ पढना चाहते हैं. एक घटना में गुजरात के मोरारी बापु को इरान सरकार की तरफ से निमंत्रण मीला है. बापु करबला के मैदान में रामकथा कर के सत्य, प्रेम और करुणा का संदेश फैलाना चाहते है. दूसरी घटना में गुजरात के राजकोट जिल्ला के थोराला टाउन में दलित की मुसलमानों द्वारा हत्या के बाद दलितों ने विरोध प्रदर्शन किया है.

आप देखिये, दो हजार साल पुराने आर्य-अनार्य के संघर्ष का एक महाकाव्य है, जिसके रचयिता वाल्मीकि है, जो उस युग की सारी सच्चाईयां को बेझिझक दिखातें हैं, जैसे कि उस जमाने के 'ब्रह्मेश्वर' इन्द्र का ऋषि पत्नियों पर बलात्कार, नियोगप्रथा, वालीवध, शंबुकवध, सीता का अग्निप्रवेश.... मुरारीभाई का राम समाजवादी है, लोकतांत्रिक है. वह वन में जाता है, वनवासी सबरी के बोर खाता है, कितना प्यार है राम लल्ला को वनवासियों के लिए, देखो. मुरारी की रामकथा का राम सेक्युलर भी है. मुरारी अच्छे सेल्समेन है. गुजरात के प्रमुख गांधीवादी लोग मुरारी के दिवाने है, क्योंकि मुरारी और गांधीवादी दोनों को राम का नया स्वरूप, दलितो-आदिवासियों का स्नेही राम, बहुत भाता है. उनके पीछे पीछे मोदी और असिमानंद का 'राम' चुपके से आता है, और डांग के आदिवासियों को मुसलमानों-ख्रिस्तियों के खिलाफ उक्साता है. मोदी गांधीनगर में महात्मा मंदिर बनाते हैं. उसमें मोरारीभाई रामकथा करते है. वाह, क्या नजारा है !!

कुछ ही दिनों में आप ऐसा भी सुनेंगे कि थोराला में कोमी सदभाव के लिए मोरारीभाई की रामकथा का आयोजन !! स्टेज पर बैठे है मुरारीभाई के साथ हमारे आदरणीय मौलानासाब और बीजेपी के दलित नेतागण. राजकोट में चौदह अप्रैल को बाबासाहब की प्रतिमा के खंडन की अफवाह फैलाकर दलित-मुसलमानों के बीच दंगा करवाने की साजिश का प्रथम अद्याय पूरा हुआ, अब दूसरा अद्याय थोराला में लिखेंगे सेफ्रन के शुभचिंतक !!    

Monday, June 25, 2012

मोदी-नीतिश दोनों के शासन में दलितों पर अत्याचार


बाबासाहब की प्रतिमा पर हमला
दलित छात्रों के कमरें इस तरह जलाए गए

तबाही की तसवीरें
गुजरात के राजकोट में जिस तरह से पुलीस दलित छात्रों पर बर्बरतापूर्वक हमला करती है, उसी तरह बिहार के कतिरा में जातिवादी लोग दलित छात्रों पर हमला करते हैं और पुलीस चुपचाप तमाशा देखती है. यहां नरेन्द्र मोदी और वहां नीतिश कुमार. दोनों ने दलितों को बेवकूफ बनाने की कसम खाई है. ये दोनों आनेवाले दिनों में दलित आक्रोश की आंधी में बह जाए ऐसी जद्दोजहद हमें करनी होगी. पेश है जनज्वार में प्रगट हूई रीपोर्ट:

रणवीर सेना के प्रमुख रहे ब्रम्हेश्वर मुखिया के मारे जाने के बाद आरा शहर चर्चा में रहा. खासकर आरा का कतिरा मुहल्ला जिसमें ब्रम्हेश्वर का घर है. 1 जून को ब्रम्हेश्वर मुखिया के मारे जाने के बाद बड़े-बड़े नेता से लेकर अफसरों और मीडिया वालों की नजर इस पर रही. बिहार के अखबारों ने तो बकायदा मुखिया के मारे जाने को लेकर पुलिस के समानंतर इंवेस्टीगेशन शुरु कर दी.

मुखिया से जुड़ी खबरें लीड तो बनती ही रही, अंदर के पन्ने भी सचित्र (कॉमिक्स की तरह) रंगे जाते रहे. मुखिया के भोज तक की खबर तीन-तीन पेज पर आती रही. यहां तक कि क्या-क्या पकवान बन रहे हैं और भोज के एक दिन पहले आग लगने से जली कुर्सियां कैसी लग रही हैं, इस तरह की खबरें आती रही. हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर सभी ने ऐसी ही रिपोर्टिंग की.

मुखिया के मरने पर मार्मिक रिपोर्ट लिखे जाते रहे. लेकिन इन सबों के बीच कतिरा के राजकीय कल्याण दलित छात्रावास की सुध लेने की जरुरत किसी ने महसूस नहीं की. यह वही छात्रावास है, जिसपर मुखिया की मौत के बाद जातिवादी और उपद्रवी तत्वों ने हमला किया था. छात्रों की पिटाई करने के साथ ही लूटपाट की गई और छात्रावास में आग के हवाले कर दिया. 

दलित छात्रावास के छात्र राजू रंजन ने बताया,“अभी मैं सो कर सुबह करीब 7.30 उठा ही था कि हमला हुआ. हम छात्र अभी संभल पाते कि उससे पहले ही मारा पीटा जाने लगा और कमरों में आग लगा दी गयी. डरकर छात्र जान बचाने इधर-उधर भागने लगे”. 

दलित छात्रावास के 17 कमरे मुखिया समर्थकों द्वारा बुरी तरह जला दिए गए हैं. दैनिक उपयोग की चीजों के साथ-साथ प्रमाणपत्र, साइकिलें, किताबें और कपड़े या तो लूट लिए गए या फिर जला दिए गए. छात्रों के पास मौजूद भीमराव अंबेडकर की मूर्ति और तस्वीरों को भी हमलावारों ने निशाना बनाया. छात्रों ने बताया कि छात्रावास का 'छात्र -प्रधान' विकास पासवान अपने कमरे में अंबेडकर की मूर्ति रखते हैं. छात्र इस मूर्ति की पूजा अंबेडकर जयंती को किया करते हैं. हमलावारों ने कमरे का ताला तोड़ उसे जलाने के साथ ही उस मूर्ति को भी क्षतिग्रस्त कर दिया.

छात्र शिवप्रकाश रंजन बताते हैं, 'मेरे कमरे की अंबेडकर की तस्वीरें फाड़ी और जला दी गयीं.यह हमला सिर्फ उपद्रव-भर न होकर पूरी तरह से सोचा-समझा सामंतवादी हमला था और हमारे आदर्शों की हमारे आँखों के सामने औकात बतानी थी.'छात्र राकेश कुमार ने बताया, 'हमले के दौरान पुलिस वाले मौजूद थे लेकिन कोई उपरावियों को रोक नहीं रहा था. पहला हमला 7.30 बजे हुआ फिर दुबारा भी हमला किया गया. उस समय जो छात्र छात्रावास में छिपे हुए थे, पुलिसवालों ने उन्हें पीछे की दीवार कूद कर भागने कहा. मजबूरन छात्रों को बचने के लिए दीवार कूद कर भागना पड़ा.'

वहीं प्रशासन इस मामले में संज्ञान भी नहीं ले रहा था. डीएम ऑफिस में विरोध-प्रदर्शन के बाद डीएम प्रतिमा एस के वर्मा छात्रों से मिलती हैं और कार्रवाई का आश्वासन देती हैं . लेकिन यह सिर्फ दिखावा मालूम पड़ता है क्योंकि एक तरफ तो ब्रम्हेश्वर मुखिया के भोज से पहले हुए अग्निकांड में तत्काल 8 लाख रुपए मुआवजा घोषित कर देती है, दूसरी तरफ दलित छात्रों की सुध भी नहीं लेती. 

मजबूरन छात्र पटना में प्रदर्शन करते हैं. जिस पुलिस मुखिया की शवयात्रा में रोकने का कोई प्रयास नहीं किया था, वही पटना पुलिस इन्हें गिरफ्तार करती है. छात्रों के दबाव बनाने पर उनके प्रतिनिधि मंडल को कल्याण मंत्री जीतन राम मांझी से मिलाया जाता है. हद तो तब हो जाती है जब कल्याण मंत्री कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि दलित छात्रावास पर हमला हुआ है.

छात्रों के प्रतिनिधि मंडल में शामिल छात्र शिवप्रकाश रंजन कहते हैं, “कल्याण मंत्री ने अब एक जांच टीम बना भेजने का आश्वासन दिया है. लेकिन वे बार-बार यहीं कहते रहे कि उन्हें छात्रावास पर हमले की जानकारी नहीं है”. आखिर प्रशासन क्या कर रहा था? इन छात्रावासों की देखरेख करने वाला कल्याण विभाग कहां था? इससे स्पष्ट होता है कि प्रशासन ने उदासीनता बरती और सरकार सोई रही. विपक्ष ने भी कोई दिलचस्पी नहीं ली. वहीं दूसरी ओर मुखिया के भोज में सरकार के नेताओं के साथ-साथ वामपंथी दलों को छोड़ सारे दलों के नेता पहुंचे.

बहरहाल छात्रों में अभी भी दहशत है. वे सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं. छात्रावास में जहां करीब 300 छात्र रहते हैं, वहीं मुठ्ठी भर छात्र ही अभी मौजूद हैं. इसमें वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय और उससे संबद्ध कॉलेजों जैसे महाराजा कॉलेज, ब्रह्मर्षि कॉलेज, जैन कॉलेज के छात्र रहते हैं जो आरा के देहाती क्षेत्रों के अलावे भोजपुरी क्षेत्र के अन्य जिलों, बक्सर से लेकर रोहतास तक के गांवों से आते हैं.

ये सारे गरीब परिवार से आते हैं और तमाम कठिनाइयों से जूझते हुए अपनी पढ़ाई कर रहे हैं.छात्र दोषियों को चिन्हित कर गिरफ्तारी की मांग कर रहे हैं, वहीं प्रशासन का रुख अब तक सकरात्मक नहीं रहा है. मीडिया भी इस मामले में कोई रुचि नहीं दिखा रही, जबकि ब्रह्मेश्वर मुखिया के बारे में इसमें खूब रिपोर्टिंग हुई है.





Sunday, June 24, 2012

गुजरात में सामाजिक न्याय का सही अर्थ



देश के अन्य राज्यों में क्या स्थिति है, यह हमें पता नहीं, मगर गुजरात में ग्राम पंचायतों की सामाजिक न्याय समितिओं को बाकायदा मृत पशुओं का निकाल करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है. गुजरात ग्राम पंचायत सामाजिक न्याय समिति (रचना और कार्य) नियमो, 1995 में सामाजिक न्याय समिति की रचना तथा कार्यों संबंधित प्रावधान है, जिसमें स्पष्टरूप से लिखा है, कि सामाजिक न्याय समिति "मुर्दों का व्यवस्थित निकाल करने की कामगीरी पर ध्यान रखेगी और लावारिस मुर्दों और शवों के निकाल के लिये साधन जुटायेगी और उन शवों के निकाल के लिये स्थान तय करेगी." 

सामाजिक न्याय समिति में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का एक-एक सदस्य होता है, उसके अलावा उसमें वाल्मीकि समुदाय का एक सदस्य तथा अनुसूचित जाति की एक महिला सदस्य को भी सामिल किया जाता है. इस समिति का काम है गांव में दलितों को सामाजिक न्याय देना. गुजरात में सवर्णों ने सामाजिक न्याय की व्याख्या ही बदल डाली है, इस बात का यह प्रावधान सबसे बडा प्रमाण है. यह कानून कांग्रेस के शासन में बना था, बीजेपी को उसे बदलने की कोई आवश्यकता लगती नहीं. दलितों के बेवकूफ राजकीय प्रतिनिधि कांग्रेस और बीजेपी का पट्टा गले में लगाए फिरते हैं, मगर इसके बारे में सोचते तक नहीं. गाय हिन्दुओं की माता है, मगर दूध-मख्खन देती है तब तक ही माता है, जब मर जाती है, तब हिन्दु अपनी माता की अंत्येष्टि का अत्यंत पवित्र कृत्य वे जिन्हे अस्पृश्य मानते हैं उन्ही लोगों से करवाते हैं.  

Sunday, June 17, 2012

दो दलित दस्तावेजी फिल्में


दलितों की पीडा और प्रतिकार की दो दस्तावेजी फिल्मों की सीडी का आज से हम वितरण शुरु करेंगे. उन फिल्मों के नाम है, 1. मारा बापनुं पुतळुं (मेरे बाप का पुतला) और 2. काफी नहीं दो गज जमीन. दोनों फिल्म अंग्रेजी सबटाइटल्स के साथ तैयार की गई है.

'मारा बापनुं पुतळुं' में आप देखेंगे कि कितना धिक्कार और घृणा है उन्हे दलित तेजस्वीता से. दलितों की भावि पीढी का नैतिक मनोबल तोडने के लिए कैसी घिनौनी साजीस रची है गुजरात की पुलीस ने. राजकोट में समाज कल्याण विभाग संचालित महात्मा गांधी छात्रालय में घुसकर पढाई में व्यस्त दलित विद्यार्थीओं पर पुलीस ने निर्दयतापूर्वक हमला क्यों किया? बाबासाहब की एक प्रतिमा जो तूटी ही नहीं थी, क्यों उसे तोडने की अफवाह फैलाई गई? ये सारे सवालों के जवाब आपको मिलेंगे 'मारा बापनुं पुतळुं' में.

जमीन इस देश के दलितों का अहम सवाल है. पीछले तीस सालों से गांवों में एग्रीकल्चरल लेन्ड सीलींग एक्ट के तहत मीली जमीन पर दलित का कब्जा है सिर्फ नाम का. वास्तव में ये सारी जमीनें गांवों में दबंग सवर्णों के अंकुश तले हैं. अगर दलित इसे लेने का तनीक भी प्रयास करतें है तो उसमें उनकी जान भी जाती है. गुजरात में अमरेली, सुरेन्द्रनगर से ले कर बनासकांठा जिल्लों में कई जगहों पर बहुत अहम लडाईयां लडी जा रही है, जो आनेवाले दिनों में निर्णायक बननेवाली है. ऐसी एक लडाई राजस्थान-पाकिस्तान की सरहद पर आए गांव जोरडीयाली में दलितों ने कैसे लडी और कैसे उन खेतों में घुसकर सवर्णो का सारा पाक उखाडकर फेंक दिया और जलाकर राख कर दिया, इसका दिल को दहलानेवाला वृतांत है फिल्म 'काफी नहीं दो गज जमीन' में.

दलितों में भाषनबाजी करनेवाले, बम्मनों को गालियां देनेवाले लीडरों की नस्ल पैदा हुई है. इस नस्ल से हटकर कुछ लोग ऐसे है जो जमीन की लडाई लड रहे है. ऐसे लोगों की बात है 'काफी नहीं दो गज जमीन' में. आज हम अहमदाबाद में इस दो फिल्मों का स्क्रीनींग कर रहे हैं. अगर आप आना चाहते हैं या सीडी लेना चाहते हैं तो 9898650180 पर संपर्क किजीए.  

Friday, June 15, 2012

ब्लड अन्डर सेफ्रन




गुजरात में 2002 के दंगो के दौरान गोधरा ट्रेन दुर्घटना के बाद एक सोची समजी साजिश के तहत गुजरात पुलीस ने सिर्फ अहमदाबाद के 33 पुलीस स्टेशनों में 2945 लोगों को तथाकथित छोटे मोटे अपराधों तहत गिरफ्तार किया था. जहां पर जघन्य हत्याकांड हुए थे ऐसे मेघाणीनगर (17), सरदारनगर (28) और नरोडा पाटीया (53) क्षेत्रो में जानबुझकर पुलीस ने कोई भी कारवाई नहीं की थी. हमने ये तमाम गिरफ्तारियों का जाति-पृथक्करण (कास्ट एनेलीसीस) किया. पूरे छ: महिने की महेनत के बाद हमने जाना कि इस में 797 बक्षी पंच के लोग (ठाकोर, रबारी, देवीपूजक वगैरह), 747 दलितों, 9 सवर्ण जातियों के लोग, 19 पटेल, 2 बनीया तथा 2 ब्राह्मण थे.

गोधरा-कांड के दूसरे दिन गुजरात के दो मंत्री नरेन्द्र मोदी के कहने पर पुलीस कमिशनर के कन्ट्रोल रूम में बैठकर सभी हत्याकांडो की निगरानी रख रहे थे. उसमें एक मंत्री अशोक भट्ट अब इस दुनिया में नहीं है. अशोक भट्ट 1981 से 1990 तक गुजरात में आरक्षण विरोधी आंदोलन का प्रमुख सूत्रधार रहा. 1985 में अहमदाबाद के खाडीया क्षेत्र में रबारी जाति के एक पुलीस कर्मी पर तीसरे मजले से बडी शिला फेंककर हुई हत्या के केस में अशोक भट्ट अभियुक्त था. बरसों तक वह केस चला, कोई नतीजा नहीं आया.

गुजरात के कोमी दंगों में दलितों ने हिस्सा लिया ऐसा दुष्प्रचार दुनियाभर में करने में कांग्रेस और बीजेपी दोनों को बहुत मजा आया. क्योंकि इस देश में दलितों की छवी जितनी कोम्युनल हो, आनेवाले दिनों में दलितों के नेतृत्व में कोई राजनीति चलने की संभावना कम हो जाय. हमने इस खतरे को भांपते हुए 'blood under saffron' (गुजराती में 'भगवा नीचे लोही') किताब लिखी है. हमारे एनालीसीस के आधार पर प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक राकेश शर्मा ने एक डोक्युमेन्टरी भी बनाई है. अब समग्र किताब हमने हमारे ब्लोग पर रखी है.

Thursday, June 14, 2012

मायावती बदनक्षी केस में फाल्गुन के खिलाफ वोरन्ट


14 जुन, 2012. मायावती की बदनक्षी करते हुए कार्टुन को छापनेवाले दैनिक 'संदेश' के तंत्री फाल्गुन चीमन पटेल के खिलाफ एट्रोसीटी एक्ट के तहत दाखील किए गए केस में अहमदाबाद की मेट्रोपोलिटन मेजिस्ट्रेट कोर्ट नं.2 ने वोरन्ट जारी किया है. 

Wednesday, June 13, 2012

आप से अच्छी थी हमारी माताएं




कुछ नारीवादियां शादी के बाद अपने नाम के पीछे दो सरनेम लीखती है. जैसे कि काजल ओझा वैध. किरण त्रिवेदी भट्ट. अरे भाई, बात बात में पेट्रीआर्की पर चिल्लाते हो, पितृसत्ताक समाज को गालियां देते हो, हम जब दलित की बात करते हैं तो हमें भी नारीवाद के दंडे से पीटते हो और कहते हो, आप के दलित समाज में स्त्रियां बहुत गुलाम है. फिर ये दो-दो सरनेम क्यों? बाप के घर थे तब बाप की जाति का निर्देश करती सरनेम का टीका लगाए रखा और अब शादी के बाद पति की जाति का निर्देश करती सरनेम का दूसरा टीका लगा दिया. आप से तो अच्छी थी कपडा मीलों में काम करनेवाली हमारी वे अनपढ़ दलित माताएं, जो अपने नाम के पीछे अपनी माताओं का नाम लिखवाती थी. उन्हो ने सीमोन द बुअर की किताब सेकन्ड सेक्स पढी नहीं थी, मगर रोज सबेरे अपने पति की साइकिल के पीछे बैठकर काम पर जाया करती थी.

Tuesday, June 12, 2012

दलित शब्द क्यों?


'दलित' शब्द से हमारे कुछ विद्वान दोस्तों को एतराज है. वे कहते हैं कि बाबासाहब ने कभी भी 'दलित' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था. हकीकत यह है कि बाबासाहब ने ही सब से पहले यह शब्द का उपयोग किया था, अंग्रेजी में डीप्रेस्ड क्लासीस (दलित वर्गों) के रूप में. 1936 में जब बाबासाहब को लाहोर के जात पात तोडक मंडल ने न्यौता दिया था, तब मंडल के हर भगवान को पत्र लिखते हुए बाबासहब कहते हैं, "I feel bound to ask; did you think that in agreeing to preside over your conference, I would be agreeing to suspend or to give up my views regarding  change of faith by the depressed classes?" (अर्थात, मैं आप को पूछना चाहुंगा कि आप की परीषद का अध्यक्ष बनने की संमति दे कर मैं दलित वर्गों द्वारा धर्मांतर करने के बारे में मेरे जो भी मंतव्य हैं उन्हे स्थगित कर दुंगा या छोड दुंगा, ऐसा आप मानते थे?)

यह शब्द कई बार बाबासाहब द्वाया उपयोग में लिया गया है. अनुसूचित जाति शब्द प्रारंभ में नहीं था. यह शब्द 'स्टेट्स एन्ड माइनोरिटीझ' में देखने को मिला, जब उन्हो ने देश का संविधान का एक प्रारूप दिया था. बौद्ध धर्मपरीवर्तन के साथ बाबासाहब हमें 'बौद्ध' संज्ञा देते हैं. दलित से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जाति से बौद्ध. यह सफर एक रात में बाबासाहब ने तय नहीं की थी. इसी लिए कांसीरामजी ने भी पहले सामाजिक संगठन 'दलित-शोषित समाज सुरक्षा समिति' (डीएस फोर) का गठन किया था. कांसीरामजी बेवकूफ नहीं थे.    

Sunday, June 10, 2012

नया आसमान


उन का सिर्फ जमीन पर नहीं आसमान पर भी कब्जा था. पहले तो उन्हो ने पूरे युनिवर्स को ब्रह्मांड कहा. हमें अभी भी ब्रह्मांड शब्द से एतराज नहीं है.  ब्राह्मण हमारे सिर पर इतना चढ़ गया है कि उसकी मायाजाल उसने कहां तक बूनी है इसका हमें पता तक नहीं. हमारे में जो शब्दों के साधक है, जरा मुझे ब्रह्मांड शब्द का पर्याय ढुंढने में मदद करेंगे? 
  
उसने आसमान में हर एक तारे को नाम दिया. हम अभी तक वही रटते आ रहे है. कब तक हम लोग सप्तर्षि नक्षत्र में अत्री, भारद्वाज, गौतम, वशिष्ट का नाम रटते रहेंगे. वे सभी ब्राह्मण थे, विश्वामित्र के अपवाद के सिवाय. क्या आप सप्तर्षि के नाम बदलना नहीं चाहेंगे? मैं आप को बता रहा हुं. हमारे नाम इस प्रकार है: बुद्ध, कबीर, नानक, रैदास, जोतीबा, बाबासाहब अंबेडकर, रमामाई. चलो, हम नया आसमान चून लें.

Thursday, June 7, 2012

हम गुजरात के बुद्धु लोग



हम महाराष्ट्र के दलितों का बहुत आदर करते थे. महाराष्ट्र की पावक धरती पर डॉ. बाबासाहब अंबेडकर पैदा हुए, जोतिबा फुले पैदा हुए. वहां से कोई आदमी गुजरात में आता, हमें बाबासाहब की बातें सुनाता. हम उसे कुर्सी पर बिठाते थे और हम नीचे बैठते थे. हम उन्हे स्वयं बाबासाहब ही समजते थे. हम तो नाचीज थे. वे हमें हमारी मर्यादाओं का अहेसास कराते थे. हमारे पुरखों ने बाबासाहब को काले झंडे दिखाये थे. उन्हो ने हमारे इतिहास का सबसे काला पन्ना लिखा था. वो बेवकूफ थे. हम भी बेवकूफ है. इसलिए तो हम हमेशां महाराष्ट्र का अनुकरण करते रहें. वहां आरपीआई बनी, हमने गुजरात में भी आरपीआई बना दी. वहां दलित पेंथर बना, हम यहां भी दहाडने लगे. वहां आरपीआई के दो टुकडे हुए, यहां हमने भी टुकडे कर डाले. आरपीआई के जितने टुकडे वहां हुए, उतने हमने यहां बना डाले. पेंथर से मास मुवमेन्ट बना, हमने उसकी शाखा भी यहां खोल दी. कोई कवाडे सर आया, हमने दलित-मुस्लीम सुरक्षा महासंघ का भी रस चख लिया. कोई बोरकर आया, हम उसके नौकर हो गए. हमने कभी सोचा नहीं कि हमारे महाराष्ट्र के बडे भाईलोग बहुत बुद्धिशाली है, मगर घमंडी, मगरूर और अहंकारी भी है. ना तो उन में कोई एकता है, ना वे हम में कोई एकता करायेंगे. हां, जय भीम, जय भीम बोलना शीखा लेंगे. मगर इस देश के हरामी, हुक्मरानों को कोई चेलेन्ज हम नहीं दे सकेंगे. हम गुजरात के बुद्धु लोग अभी भी नहीं समज रहे. हम अभी भी महाराष्ट्र के दलितों का  आदर करते हैं. जय भीम. जय महाराष्ट्र. जय गुजरात.

हरीजनों के पास दिमाग नहीं है, बुद्धि नहीं है, ऐसा कहते है गांधी



"मैं मानता हुं कि ............. हरीजनों का विशाल समुदाय तथा उसी तराह भारतीय मनुष्य ख्रिस्ती धर्म की प्रस्तुती समज नहीं सकते और सामान्य तौर पर जहां भी धर्मांतर होता है, वह किसी भी अर्थ में आध्यात्मिक कृत्य नहीं है. (हरीजन, 1936, पेज 140-141). वे (हरीजन) दो चीजों के बीच फर्क नहीं कर सकते, जितना की एक गाय कर सकती है. हरीजनों के पास दिमाग नहीं है, बुद्धि नहीं है, इश्वर और अनिश्वर के बीच फर्क करने की समजशक्ति नहीं है." (हरीजन, 1936, पेज 360)

(डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर, राइटींग एन्ड स्पीचीज़, वोल्युम 5, अनपब्लिस्ड राइटींग्स, अनटचेबल्स ओर धी चील्ड्रन ऑफ इन्डीयाझ गेट्टो एन्ड अधर एसेझ ओन अनटचेबल्स एन्ड अनटचेबिलिटी सोशीयो-पोलीटीकल-रीलीज्यस, पेज 446-450)

Tuesday, June 5, 2012

इसे राष्ट्रीय सम्मान कैसे कहेंगे ?



स्वतंत्रता के बाद पीछले पैंसठ सालों में गुजरात के कुल मीलाकर सौ लोगों को भारत सरकार ने पद्मभुषण, पद्मविभुषण और पद्मश्री के खिताब दिए. इन सौ लोगों में एक भी शख्श दलित, आदिवासी, पीछडा (बक्षी पंच), मुसलमान, ख्रिस्ती नहीं है. अर्थात गुजरात के सत्तर फिसदी लोगों में से एक भी आदमी इतने सालों में इन खिताबों का हकदार नहीं था. सरकार कांग्रेस की हो या बीजेपी की, किसी ने भी गुजरात के बहुजन समाज के लोगों को इस तरह के राष्ट्रीय सन्मान के हकदार नहीं माने.

गुजरात में दलितों के नेता जैसे कि वालजीभाई पटेल, रमेशचंद्र परमार, आदिवासियों के नेता वसावा या मानव अधिकार आंदोलन के प्रहरी गीरीश पटेल जैसे लोगों को ऐसे खिताबों के हकदार कांग्रेस ने नहीं माना होगा, क्योंकि वे कभी कांग्रेस के चाटुकार नहीं रहे, ऐसा हम मानते हैं. पर पूरी जिंदगी दलित आंदोलन में हिस्सा लेने के बाद कांग्रेस में जानेवाले प्रविण राष्ट्रपाल को भी ऐसा खिताब देने में कांग्रेस को क्या एतराज है? और एहसान जाफरी, जो कभी समूचे अहमदाबाद का प्रतिनिधित्व करते थे, उन्हे भी केन्द्र सरकार ने ऐसे सम्मान से नहीं नवाजा.

बीजेपी ने दलित-आदिवासी-पीछडों का इस्तेमाल किया, मगर उसने भी एनडीए के कार्यकाल में गुजरात के बहुजन समाज के किसी प्रतिनिधि को ऐसे खिताब देने के बजाय उंची जातिओं के लोगों को ही प्राधान्य दिया था. दलित पत्रकारीता तथा इतिहास में जिन्हो ने अच्छा काम किया है, वैसे पी. जी. ज्योतिकर को विश्व हिन्दु परिषद अभी इस्तेमाल कर रही है, मगर ज्योतिकर को ऐसा सम्मान ये लोग कभी नहीं देंगे, ऐसा हमारा दावा है. हम ऐसे सम्मान को राष्ट्रीय सम्मान कैसे मानेंगे, जो अभी भी सवर्णों की बपौती है?

महाराष्ट्र, पंजाब या देश के अन्य प्रदेशों में क्या स्थिति है, यह हम जानना चाहते हैं. क्या बहेनजी ने उत्तर प्रदेश से किसी दलित को ऐसा सम्मान मीले ऐसा कोई प्रयास किया था? (अब आप मुझ ऐसा मत कहेना कि "हम ऐसे बामनवादी सम्मानों में नहीं मानते")  

Monday, June 4, 2012

हमारी लडाई


हमारी पूरी लडाई बामनो को गालियां परोसने तक सीमीत है. मैंने कभी भी किसी दलित नेता को बिहार की, और देश की भूमि समस्या के बारे में बात करते हुए देखा नहीं है. मायावती बामनों के साथ बैठी, अब हार गई, बिहार में नीतीश आ गया, पासवान घर गया, गुजरात में मोदी बैठा है. हम लोग भूमि समस्या को समजते ही नहीं. एक कार्टुन के लिए बवंडर खडा कर दिया. देश की खेतीलायक जमीन के राष्ट्रीयकरण की बात भी बाबा ने कही थी. अगर मर्दानगी है तो यह सवाल उठा लो. मगर प्रमोशन, पदोन्नति, कारकूनी करनेवाले चंद नेतालोग भूमिहीन दलितों का सवाल ऐजन्डा पर लाएंगे ही नहीं. पूरे देश में जमीन का राष्ट्रीयकरण करने की मांग उठाते हैं, चलो. देश के 18 लाख गांवो में रहनेवाले दलितों के लिए यही मसला अहम है.