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Wednesday, February 27, 2013

थानगढ के दलित युवान सुरेश गोगीया की रिहाई



कल शाम छ बजे सुरेश गोगीया सुरेन्द्रनगर जेल से रिहा हुआ. कई दिनों की तपस्या के बाद अपने बेटे को जेल के बाहर देखकर सुरेश के पिता वालजीभाई की आंखे छलक गई. पिछले पांच महिने से वालजीभाई बेचैन थे. बिना वजह उनके बेटे को पुलीस पकडकर ले गई थी. तीन लडकों की मृत्यु के बाद थानगढ में हजारों दलितों का आनाजाना हुआ, शहीदों के नाम पर बेवजह तमाशा भी बहुत हुआ, बीजेपी-कांग्रेसवालों ने जमकर अपनी अपनी डफली बजाई, राजनीतिक दलों के कई बडे बडे नेता आए, मगर किसीने वालजीभाई के घर जाकर सुरेश के उन मासूम तीन बच्चों की और उनकी पत्नी की खबर तक नहीं ली थी. किसीने भी गरीबी और किस्मत के मारे सुरेश गोगीया के परिवार को एक पैसे की मदद करना उचित नहीं समजा. 

25 सप्टेम्बर 2012 के दिन हम जब थानगढ गये थे और चलो थान का कोल दिया था तब सुरेश गोगीया की पत्नी ने चीख चीखकर बताया था कि किस तरह उनके पति को बिना वजह पुलीस ले गई है. एक सीधा सादा आदमी जिसने अपनी पैंतीस साल की उम्र में किसी को चाटा तक नहीं मारा उसके पर कैसे कैसे भयानक इल्जाम थोपे गए हैं. तब हमने मन ही मन अपने आप से एक वादा किया था कि सुरेश गोगीया को न्याय दिलवाने के लिए हम कुछ करेंगे. 

कल सुबह से साथी महेश चौहाण तथा कनु सुमरा के साथ हम सुरेन्द्रनगर जाने के लिए निकले थे, तब दिल में एक ही उम्मीद थी कि आज किसी भी तरह शाम होने से पहले सुरेश गोगीया का उसके तडपते हुए परिवारजनों से मिलन हो जाय. अहमदाबाद से लीमडी एडिशनल सेशन्स जज की कचहर जाना, वहां से बेइल ओर्डर का रजिस्ट्रेशन करवाने सुरेन्द्रनगर जाना, फिर सुरेन्द्रनगर से वापस लीमडी कोर्ट में बेइल पर जज का दस्तखत करवाना, फिर उसे लेकर वापस सुरेन्द्रनगर सब जेल में सुरेश गोगीया की रिहाई करवाने जाना, पूरा दिन इस दौडधूप में निकल गया और सभी साथी तथा सुरेश के पिता थक गये, मगर शाम को जब सुरेश जेल से बाहर निकला, सभी की थकान दूर हो गई.

आदरणीय जज सोनिया गोकाणी ने सुरेश की रिहाई का ओर्डर लिखते वक्त उस बात पर गौर किया है कि 1. सुरेश पर सेक्शन 307 के तहत गंभीर आरोप है, 2. (जिन व्यक्तिओं को चोट पहुंचाने का उस पर आरोप है उन्हे) मामुली चोट आइ है ऐसा रेकोर्ड से पता चलता है, 3. (सुरेश) किसी चोक्कस व्यक्ति को चोट पहुंचाने की खास भुमिका निभाई नहीं है. यह सारी दलीलों को कोर्ट ने खारिज नहीं किया है और इसी परिप्रेक्ष्य में सुरेश को जमानत दी है. 

वरिष्ठ, विद्वान एडवोकेट मुकुल सिंहा, उनकी टीम और आदरणीय वालजीभाई पटेल के अमूल्य मार्गदर्शन तथा महेनत की बदौलत एक अच्छा कार्य संपन्न हुआ उसका हमें आनंद है. चार दिवारों के बीच बडे बडे भाषण करने से जो आनंद मिलता है उससे ज्यादा, अखबारों में हमारा नाम ढुंढते ढुंढते फिर वह जब किसी कोने में दिखता है तब मिलनेवाले उस बचकाना आनंद से कई गुना ज्यादा सुकुन हमें इस कार्य से मिला है. आनेवाले दिनों में इसी तरह हमारे सारे साथी मिलकर हमारे मजलूम लोगों के लिए ऐसे ही काम करते रहेंगे ऐसी उम्मीद बेकार नहीं है.

Friday, February 15, 2013

भंगी समाज की प्रथम महिला पीएच. डी शारदाबहन वडादरा का सम्मान



दो शारदा के बीच बयासी साल का फासला 
1902 में गुजरात की प्रथम सवर्ण महिला शारदा स्नातक हुई. बयासी साल बाद 1984 में शारदा वडादरा भंगी समाज की प्रथम महिला पीएच. डी बनी. 1988 में अहमदाबाद में शारदा वडादरा का सम्मान हुआ. उस वक्त प्रसिद्ध समाजशास्त्री अक्षयकुमार देसाई ने प्रवासी अखबार में लिखे लेख को यहां प्रसिद्ध किया है. 

अहमदाबाद में ता. 28-8-88 रविवार की सुबह एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना में उपस्थित रहने के लिए निमंत्रण पत्र मुझे मिला था और उस विषय में सम्मान समिति की तरफ से प्रकाशित पत्रिका भी मुझे मिली थी. अनिवार्य संजोगों के कारण मेरी साथी मित्र डॉ. नीरा देसाई और मैं नहीं जा सके, परन्तु तुरंत ही इस प्रसंग की सराहना करते हुए और उसके सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व की सराहना करते हुए हमारी तरफ से प्रसंगोचित संदेश लिखकर हमने हमारी उपस्थिति दर्शायी थी.

इस समारंभ के निमंत्रण पत्र के अनुसार यह समारंभ, भंगी समाज की प्रथम महिला पीएच. डी. कु. शारदाबहन बाबुभाई वडादरा का सम्मान करने के लिए आयोजित किया गया था. जयशंकर सुंदरी हॉल, रायखड में रविवार को सुबह 10 से 1 बजे के बीच समारंभ रखा गया था. कु. शारदाबहन बाबुभाई वडादरा सम्मान समिति के कन्वीनर थे गुजरात में दलितों-शोषितों के लिए अविरत संघर्ष करनेवाले कर्मशील और लेखक राजुभाई सोलंकी और जयंती बारोट.

इस समारंभ के प्रमुख थे प्रसिद्ध मार्क्सवादी किसान-मजदूर कार्यकर जीवनलाल जयरामदास. गुजरात के सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारीओं के लिए अविरत लडाई लडनेवाले कार्यकर प्रवीण राष्ट्रपाल अतिथि विशेष थे. मुख्य महेमान के तौर पर गुजरात के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष और कोर्ट कचहरीओं में मौलिक लडत देनेवाले लोक अधिकार संघ के महत्व के कार्यकर धाराशास्त्री गीरिश पटेल थे. आमंत्रित महेमान जो इस समारंभ में वक्ता के रूप में मौजूद थे उनके नाम भी उल्लेखनीय है इसलिए उनका उल्लेख यहां कर रहा हूँ. दया पवार, जोसेफ मेकवान, डॉ. नीतिन गुर्जर, प्रा. वारीस अलवी, पागल बाबा के नाम से प्रसिद्ध दलितों के लिए कार्य करनेवाले लडाकू कार्यकर मंगलदास परमार, जयवर्धन हर्ष. मेरा नाम भी था, परन्तु अनिवार्य संजोगो के कारण पत्र संदेश द्वारा मैंने अपनी मौजूदगी दर्शाई. 

समिति के संयोजक राजु सोलंकी और जयंती बारोट के अलावा समिति के अन्य सदस्यों के नामों का उल्लेख करने जैसा है. ये नाम गुजरात में पिछले दो-तीन दशकों से पीडित श्रमजीवी जनता की आर्थिक, सामाजिक, नागरिक अधिकारों तथा शैक्षणिक, सांस्कृतिक लडाई के इतिहास के साथ ओतप्रोत होनेवाली और गुजरात की नई लडाकू, अन्याय के खिलाफ संघर्ष करनेवाली, अपने तरीके से विविध प्रकार की कुर्बानी देनेवाली व्यक्तिओं के है. चुंकि उनके नामों के साथ जुडा है गुजरात के ढेर सारे अन्यायों के खिलाफ संघर्ष का इतिहास जुडा है, मैं यहां उनके नामों को लिखने की लालसा रोक नहीं सकता. सम्मान समिति के अन्य सदस्यों के नाम निम्नलिखित है.

के. सी. सोलंकी, नयन शाह, डी. के. राठोड, गीता शाह. कनु सुमरा, डॉ. गणपत वणकर, कांतिलाल डाभी, लक्ष्मण चौहाण, अश्विन देसाई, डंकेश ओझा, तनुश्री गंगोपाध्याय, नवनीत राठोड, बकुल राष्ट्रपाल, गणपत परमार, कर्दम भट्ट, डॉ. भरत वाघेला, सरूप ध्रुव, भरत वाघेला, भानु परमार, साहिल परमार, डाह्याभाई भगत, सुभाष पालेकर, हीरेन गांधी, जे. के. चौहाण, मुक्तेश पटेल, शंकर पेन्टर, हरीश मंगलम, इश्वर परमार, विल्फ्रेड डीकोस्टा, नगीनभाई परमार, प्रहलाद चावडा.

इस समारंभ का आयोजन करनेवाली सम्मान समिति, संयोजकों तथा प्रमुख, अतिथि विशेष, मुख्य महेमान तथा आमंत्रित महेमानो के नामों का विवरण पेश करने के पीछे एक अहम वजह है. स्वतंत्रता पश्चात कई रूकावटों के बाद भी गुजरात में आदिवासी, दलित, महिला, श्रमजीवी, शोषित, नगर और ग्रामवासियों की चल रही प्रचंड, अविरत, वीरता और खुमारी से भरी लडाईयां, आंदोलन, जनजागृति के कार्यक्रम तथा सांस्कृतिक-शैक्षणिक प्रयोगों का इतिहास अगर लिखना है तो इन्ही व्यक्तिओं कों मिलकर तथ्यों की जानकारी लेने के बाद ही लिखना मुमकीन है. उनके द्वारा गठित संगठनों, उनसे जुडे आंदोलनों के तथ्यों, उनके प्रकाशनों, सर्जनों तथा सांस्कृतिक जनजागरण, जोशीले प्रयासों की रूपरेखा तैयार करके ही गुजरात के पिछले तीन दशकों के दलित  पीडित प्रजा के वर्तमान इतिहास और विकासशील मानवीय चेतना के व्याप को हम समझ सकते है. 

समांरभ के आयोजन के पीछे का उदेश्य भी जानने जैसा है, जिसे हम संयोजको और सम्मान समिति की सभ्यों की तरफ से प्रकाशित पत्रिका से उद्धुत कुछ अंश से समझें,

कु. शारदाबहन बाबुभाई वडादारा भंगी समाज की पीएचडी करनेवाली सर्वप्रथम महिला है. सामान्य तौर पे अनुसूचित जातिओं में शिक्षा का प्रमाण कम है और स्त्रियों में न बराबर का है. और उसमें भी भंगी समाज तो सभी जातियों में सबसे उपेक्षित, आर्थिक रूप से शोषित और दलितों में भी पददलित है. फिर भी अनेक विध्नो को पार करके भंगी समाज की शारदाबहन ने शिक्षण जगत की सर्वोच्य यशस्वी डिग्री प्राप्त करके भंगी समाज का ही नहीं, परन्तु समग्र अनुसूचित जाति का गौरव बढाया है. इसलिए उनका सम्मान करने का निश्चय किया गया है .......... सामान्यतौर पर हर जाति के लोग अपने अपने समाज के ऐसे बुद्धिजीवियों को सम्मान करते रहते है. परन्तु हमने सभी जातिओं के द्वारा भंगी समाज की एक विद्धान शख्सियत का सम्मान करने का निश्चय है ......... शारदाबहन का सम्मान किसी एक व्यक्ति का सम्मान नहीं है, परन्तु समग्र भंगी समाज का सम्मान है, पददलित नारी का सम्मान है. सभी अनुसूचित जातियों का सम्मान है.  इस प्रसंग पर भंगी समाज के विकट प्रश्नों की चर्चा करने का भी मौका हमें मिलेगा. ऐसे प्रश्न जिसे हल करने में अभी तक दकियानुसी संस्थाएं तथा सरकार ने नहिवत् कार्य किया है.

28 तारीख को आयोजित हुई इस घटना का समाचार मैं मुंबई के समाचार पत्रों में ढूंढ रहा था, परन्तु नहीं मिलने पर इस महत्वपूर्ण घटना के विषय में ‘प्रवासी’ में लिखने के लिए प्रेरित हुआ. इस प्रसंग को दस दिन बीत जाने के बाद भी मुंबई के जितने भी अखबारों को मैंने पढा, उनमें से किसी में भी यह समाचार ना मिलने से आज इस प्रसंग के जरिये उपस्थित कुछ सवालों को यहां रखता हूँ.

‘भंगी जाति आज भी दलितों में पददलित है. आजादी के 40 चालीस साल बाद भी उनकी हालत, उनकी रोजी-रोटी तथा घर-शिक्षण अथवा तबीबी सुविधाओं में बहुत फर्क पडा नहीं है. आजादी के चालीस साल बाद भी उनमें शिक्षण का प्रमाण सिर्फ पांच-सात प्रतिशत है. स्त्री शिक्षण तो नहिवत् है. परंपरागत सफाई कामों में से अभी तक उन्हे आजादी नहीं मिली हैं. शहर में किसी पढे लिखे परिवार में अत्यंत गरीबी के बीच अनेक प्रकार की यातनाओं, अन्यायों और अपमानों के बीच अभ्यास का मौका मिलता है. उसमें भी महिलाओं को तो शायद ही मौका मिलता है. शारदाबहन के पिता सातवीं कक्षा तक पढे संवेदनशील व्यक्ति थे. उनकी बेटी शारदा खानदानी सफाईकाम की बेगार में से निकलकर पढाई करें और अपनी शक्तियों का प्रयोग अन्य प्रवृतियों में करें ऐसा सोचकर उन्होनें अनेकों मुश्किलों के बाबजूद भी उसकी पढाई पर ध्यान दिया. एक महिला होने के साथ पददलित महिला के रूप में शारदा ने अनेक कष्टदायी, अपमानित परिस्थितियों का सामना करके शिक्षण के अनगिनत पायदान चढ 1974 में बी. ए. की उपाधि प्राप्त की, 1976 में एम. ए. किया, 1979 में बी. एड. की डिग्री प्राप्त की और 1984 में मधूसूदन पारेख प्रियदर्शी के मार्गदर्शन में पीएच डी किया. विद्यार्थीकाल में बहन शारदा को वनिता विश्राम में, स्कूल शिक्षा दौरान गुजरात के आंचलिक साहित्यकार-सुधारक इश्वर पटेलीकर अपनी कहानी लोही की सगाई समझाते थे, उन्ही के लेखो को पी.एचडी में विषय के रूप में पसंद करके डिग्री प्राप्त की. इतनी सारी डिग्री, उच्चतम पदवीओं को पाने के बाद भी उच्च शिक्षण संस्था में अभी तक उन्हे नौकरी नहीं मिली है. वह अहमदाबाद म्युनिसिप ट्रांसपोर्ट सर्विस (एम.टी.एस.) में कलार्क के रूप में कार्यरत है.

शारदाबहन वडादरा के सम्मान समारंभ के संदर्भ में गुजरात के प्राण प्रश्नों के बारे में विचार कर रहा था और उसमें भी महिलाओं की समस्याओं के बारे में सोच रहा था, तभी 1902 में 86 साल पहले गुजरात की दो प्रथम स्नातक हुई बहनें शारदाबहन-विद्याबहन अपने कॉलेज जीवन में किन अनुभवों से गुजरी होगी उसका ख्याल आया. शारदाबहन सुमन्त महेता की 1939 में ‘जीवन संभारण के नाम से प्रकट हुई ‘आत्मकथा जो सालों तक अप्राप्य थी, 1983 में सुस्मिताबहन ने संवर्धित की और परिवारजनों ने दूसरी आवृत्ति उनकी जन्मशताब्दि पर प्रकाशित की उसकी याद आई. संस्कारी खानदानों की औरतें, उच्च ज्ञाति की, सुधारक कुटुंबों की बेटियों या पत्नीओं को भी शिक्षण और उसमें भी उच्च शिक्षण लेते समय किन किन मुसीबतों से गुजरना पडा था, उसका संक्षेप-सरल भाषा में सटीक वर्णन इस किताब में है, वे लिखती हैं, कॉलेज में पढते समय कॉलेज जीवन का जो लाभ लडकों को मिलता था उसका सौवां हिस्सा भी हमें नहीं मिला. मात्र विद्या प्राप्त करने का ध्येय पूरा हुआ. कठोर नियमों का पालन करते हुए भी लोगों ने निंदा करने में कोई कसर नहीं छोडी. लडकों ने भी परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी. गुमनाम लेटर आते रहते थे, हमारी बैठने की कुर्सियां गिरा देते थे, डेस्क पर उल्टा-सुल्टा लिख देते थे, बैठक पर कौंच डालकर परेशान करते थे. यह सब सहन किया, लेकिन अंत में मेरे विवाह के समय लडकों ने तूफान मचा दिया और विध्न डालने की धमकी देने लगे तो मन को अपार दु:ख हुआ फिर भी हिंमत रखते हुए मैंने कर्तव्य को निभाया है.

1902 में उच्च ज्ञाति की, संस्कारी-सुधारक कुटुंब में हौसला और हिंमत पाकर बनी पहली स्नातिका बहनों में से एक शारदाबहन महेता ने अभ्यास दौरान झेली मुसीबतें एक तरफ है और दूसरी तरफ, 1984 में हिन्दु समाज की सबसे पददलित जाति की बहन शारदा वडादरा ने अनेक यातनाओं, अपमानो, उलझनों के बीच घरकाम, सफाईकाम की मानसिकता से ग्रस्त, उच्च और मध्यमवर्ग-वर्ण की साथ साथ पुरुषलक्षी मूल्यों से रंगी परिस्थिति में से गुजरना पडा होगा उसका स्मरण करने के साथ ही उसका अभ्यास करना भी जरूरी है. आजादी के चालीस साल बाद गांधी के नाम का हंमेशां उपयोग करके आध्यामित्कता का मुखौटा पहनकर घुमनेवाले हमारे उच्च मध्यम वर्गीय वर्ण के, संस्कारी, दानवीर तथा मानवप्रेम की बात करनेवाले समृद्ध आर्थिक रूप से सद्धर बने और सत्तास्थान पर कब्जा जमानेवाले समाज के तथाकथित नेता और आध्यामित्कता के रक्षक आज पददलित समुदाय, उसमें भी सबसे पददलित जातियों में पांच फिसदी शिक्षा भी नहीं पहुंचा सके है और महिलाओं को तो शिक्षण से लगभग दूर ही रखा है, गंभीरता से विचार करने जैसा है. गुजराती समाज के विकासशील इस ढांचे के बारे में मूलगामी विचार करने की जरूरत है.

शारदाबहन वडादरा की शिक्षण सिद्धि और शिक्षणक्षेत्र में यशस्वी प्रयत्नों के बाद भी शिक्षा धामों में प्रवेश से इनकार, गुजरात और भारत की बहुमत गरीब जनता के खिलाफ शासकों द्वारा अपनाई विकास की, समृद्ध, नफालक्षी, मिल्कतधारी वर्गों को विकास के अग्रदूत मानने की नीति में मूलगामी परिवर्तन करने की तथा उसके लिए कटिबद्ध होने के लिए संगठित होकर लडाईयों का विकास करने की चुनौती देता है.

राजु सोलंकी, जयंती बारोट और सम्मान समिति के सदस्यों को इस ताकतवर, पददलित बहन कु. शारदा वडादरा सम्मान समारंभ के लिए अभिनंदन. पीएच.डी. हुई बहन शारदा अपने जीवन के कष्टदायी स्मरणों को लिखकर दलित-पीडित के अनुभवों और चेतना को वाचा देगी तो पददलितों के इस इतिहास में एक अहम प्रकरण शामिल होगा.

Monday, February 11, 2013

गुजरात समाचार के तंत्री को थप्पड लगानेवाले भरत वाघेला की मृत्यु

ब्रह्माणीनगर के दलितों को वैकल्पिक व्यवस्था देने की लडाई.
 बाबासाहब के तैलचित्र के सानिंध्य में बैठे है भरत वाघेला 
विश्व केंसर दिन की पूर्व संध्या पर दलित आंदोलन के बहादुर, जिंदादिल, लडाकू, कर्मशील भरत वाघेला की मृत्यु हूई और वह भी केंसर का शिकार होकर वह अत्यंत ह्रदयविदारक घटना थी. ‘बोक्सर’ की उपाधि से प्रसिद्ध भरत वाघेला का परिचय 1981 के आरक्षण विरोधी दंगों के दौरान विशेषरूप से हुआ था, जब उनके जैसे चंद युवानों ने जान जोखिम में डालकर अहमदाबाद में आरक्षण विरोधियों से घिरी दलित बस्तियों की हिफाजत की थी. आज आरक्षण का फायदा उठानेवाले लोग इच्छा या अनिच्छा से समाज परिवर्तन की बात भूल गये हैं तब पुरानी और नई पीढियों को भरत वाघेला की याद दिलाने जैसी है.

भरत वाघेला का जन्म अहमदाबाद के खानपुर क्षेत्र के मिरासीवाड में हुआ था. उनके पिता मीन्टुभाई गांधीजी के अंतेवासी कीकाभाई और केशवजी वाघेला के परिवार से आते थे इसलिए सामाजिक निष्ठा और राजकीय सूझबूझ भरतभाई को विरासत में ही मिली थी, और वे बचपन से ही बाबा साहब और कार्ल मार्कस की उद्दाम विचारधारा के प्रति आकर्षित हुये थे. गुजरात में दलित पेंथर की स्थापना हुई तब अहमदाबाद में खानपुर क्षेत्र से विशाल ऐतिहासिक रेली निकली थी और बहेरामपुरा क्षेत्र में केलिको मिल के मैदान में जाकर सार्वजनिक सभा के रूप में परीवर्तित हो गई थी. मीरासीवाड के जोशीले युवा पेंथर भीखुभाई परमार की आगेवानी में भरत वाघेला सहित हजारों युवान जय भीम का नारा लगाते हुए जयप्रकाश चौक में इकठ्ठा हुए थे.

दहकती हुई आग में कूदने से इन्कार करे तो वह भरत वाघेला नहीं. जेतलपुर के दलित युवान शकरा को जब जिन्दा जलाया गया था उस वक्त भरत वाघेला अपने हाथ से शकरा की लाश उठाकर सिविल होस्पिटल के पोस्टमोर्टम रूम से बहार लाये थे. उनके साथ खानपुर तथा समूचे अहमदाबाद के हजारों युवान जुडे थे और जेतलपुर एवम् समग्र गुजरात को दलित आक्रोश का परिचय करवाया था.

1981 के बाद जाति निर्मूलन समिति की स्थापना में भरतभाई वाघेला ने नींव की भूमिका निभाई थी. और उनके साथ फदाली वास के दिवंगत धनसुख कंथारीया, राजेन्द्र जादव, नवनीत राठोड, मनुभाई परमार, रायखड के कनु सुमरा सहित असंख्य लोग जुडे थे और अहमदाबाद के विविध विस्तारों में ब्राह्मणवाद की बारहाखडी नामक ऐतिहासिक नूक्कड नाटक किया. 1985 में आरक्षण के पक्ष में दलित समाज को एकजूट करने में भरत वाघेला जैसे युवानों का अप्रतिम योगदान रहा है. अहमदाबाद में बम विस्फोट होते थे और जाति निर्मूलन के युवा रंगकर्मी परा विस्तारों में नूक्कड नाटक करते थे और हजारों लोग उन्हे देखने के लिये इकठ्ठा होते थे.

कलोल में आरक्षण के समर्थन में रेली निकली उसके दो दिन पहले जाति निर्मूलन समिति के युवा रंगकर्मी पहुंच गये थे और कलोल के विविध विस्तारों में नूक्कड नाटक करके लोगों को इक्ठ्ठा किया था. रेली निकली तब रास्ते में कुछ शरारती लोगों ने पथराव किया और लोग तीतर बीतर होने लगे, तब जाति निर्मूलन के कार्यकरों ने रास्ते के बीच में खडे होकर, पथराव झेलकर, रेली को गंतव्य स्थान पर पंहुचाया. कटोकटी के ऐसे तमाम मौकों पर भरत वाघेला चट्टान की तरह खडे रहते थे.

1981 और 1985 में गुजरात के अखबारों ने विकृत, गलत और एक तरफी समाचारों की बौछार करके  दलित विरोधी मानसिकता का माहौल पैदा करने में बहुत बडी भूमिका निभाई थी. प्रेस काउन्सिल ऑफ इंडिया ने वरिष्ठ पत्रकार बी. जी. वर्गीझ के नेतृत्व में नामांकित पत्रकारों की जांच समिति गुजरात भेजी थी और उन्होने तलस्पर्शी छानबीन के बाद क्रुकेड मीरर (कपटी शीशा) नामक रिपोर्ट जारी किया, जिसमें गुजरात समाचार, संदेश की जातिवादी, दलित विरोधी मानसिकता उजागर हूई थी. कुछ लोगों को इन तमाम तथ्यों के बारे में पता है, परन्तु बहुत कम लोगों को यह बात पता है कि 1985 में गुजरात समाचार के अहमदाबाद-स्थित प्रेस के बाहर ही भरत वाघेला ने तंत्री शांतिलाल शाह के गाल पर एक ज़ोरदार थप्पड मारकर जातिवादी तंत्री की शान ठिकाने ला दी थी.

मात्र पांच की फूट की उंचाई वाले भरत वाघेला के भीतर उर्जा का अप्रतीम स्त्रोत था. जिन्हो ने उनके लोखंडी पंजे का स्वाद एक बार भी चखा हो वह उन्हे जिंदगीभर नहीं भूलते थे. आज से तीस साल पहले आधे दर्जन मवालियों का मुकाबला करके सिर्फ एक ही मुक्के में उन्हें धूल चटानेवाले भरत वाघेला को जिसने भी देखा है वे लोग आज भी इस दिलेर युवान को याद करते है और कहते है कि जातिवादी-कोमवादी मवालियों से दलित समाज का रक्षण करनेवाले भरत वाघेला जैसे वीरों .को हम भूल नहीं सकते.

गुजरात के गांव में कहीं भी अत्याचार होते थे तो  दलितों की मदद के लिये भरत वाघेला हमेंशा तत्पर रहते थे और अपनी कम आमदनी भी खत्म हो  जाये तो भी उसकी परवाह नहीं करते थे. जामनगर जिला का कालावाड तहसील का टोडा गांव हो या बनासकांठा का सांबरडा गांव हो, भरत वाघेला यह लेखक के साथ जरूर वहां जाते थे और लोगों को जुर्म के खिलाफ लडने का हौंसला देते थे. 1989 में अहमदाबाद में टोडा-सांबरडा की रेली गठित करने में  उन्होने अहम भूमिका निभाई थी और बारिश में भी उन्होने पत्रिकाएं बांटी थी.

1989 में अहमदाबाद के ओढव विस्तार में आये  ब्रह्माणीनगर में म्युनिसिपल कोर्पोरेशन ने बुलडोझर चला दिया और बारिश के दिनों में दो सौ परिवारों के सर से छत चली गई. तब दाणापीठ के पास आई कोर्पोरेशन की कचहरी के कंपाउन्ड में हिजरत करके धरना पर बैठे दलितों को एक महिना तक भरत वाघेला और रायखड के कनु सुमरा के नेतृत्व में दलित युवानों ने रास्ते पर खाना पकाकर खिलाया, आंदोलन किया और घरविहीन दलितों को वैकल्पिक व्यवस्था देने के लिये मेयर गोपालदास सोलंकी को बाध्य किया.

1985 में आरक्षण के विरोध में समग्र गुजरात बंध का कोल दिया गया था. जाति निर्मूलन के मित्रों ने लाल दरवाज में धरना किया था. पुलिस ने उनकी धरपकड करके दो दिन तक गायकवाड की हवेली के लोकअप में रखा. तब भरत वाघेला हमारे साथ शूरवीर योद्धा की तरह खडे रहे थे. कुछ किये बिना ही आज लोग समाज के लिये बहुत कुछ करने का ढोंग कर रहे हैं उस वक्त भरत वाघेला जैसे समाज के लिए मर मीटनेवाले युवानों की बहुत कमी महसूस होगी. टीकेश मकवाणा, प्रो. बाबुभाई कातिरा (कोडीनार) के अकाल स्वर्गवास होने के बाद भरत वाघेला की कम उम्र में दु:खद मृत्यु से दलित समाज रांक बना है. उनके जीवन के प्रेरणादायी तत्व हमें हमेंशा समाज के उत्थान के लिये कार्य करने के लिये प्रेरित करते रहेंगे.